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वेद: स्वर्ग के राजा इंद्र देवता या पदवी हैं, वेदों में प्रमुख स्थान पाया गया है


वेदों: कई लोगों को यह जानकर आश्चर्य होता है कि भगवान इंद्र को वेद (हिंदुओं के प्रमुख ग्रंथ) में प्रमुख स्थान दिया गया है। ऋग्वेद में तो 250 से अधिक मंत्र हैं। लेकिन इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है. कई पुराणों में उल्लेख मिलता है कि इंद्र एक पदवी है और कोई व्यक्ति विशेष नहीं है। कभी इंद्र की पदवी पर नहुष रेस्तरां होते हैं तो कभी शतकत्रो। वेद हमें यही सीखना है कि एक ही भगवान है और उस भगवान के अलग-अलग नाम से जानें।

यो देवानां नामधा एक एव। (ऋग्वेद 10.82.3/शुक्ल यजुर्वेद 17.27)

या

यत्र देवाः समगच्छन्त विश्वे। (ऋग्वेद 10.82.6)
“एक ही परमात्मा देवों के अनेक आलंबनों को धारण करता है और एक ही परमब्रह्म में सभी देव आत्मभाव से संगत हो जाते हैं।”

अतएव शुक्ल- यजुर्वेद संहिता में भी एक इंद्र-परमात्मा ही सर्वदेवमय है और सभी देव एक-इंद्रस्वरूप ही हैं। इसका स्पष्ट वर्णन इस प्रकार किया गया है-

अग्निश्च म इन्द्रश्च मे सोमश्च म इन्द्रश्च मे सविता च म इन्द्रश्च मे सरस्वती च म इन्द्रश्च मे पूषा च म इन्द्रश्च मे बृहस्पतिश्च इन्द्रश्च मे यज्ञेन कल्पन्तम्।।
मित्रश्च म इन्द्रश्च मे वरुणश्च म इन्द्रश्च मे धाता च म इन्द्रश्च मे त्वष्टा च म इन्द्रश्च मे मरुतश्च म इन्द्रश्च मे विश्वे च मे देवा इन्द्रश्च मे यज्ञेन कल्पन्तम् ॥
पृथिवी च म इन्द्रश्च मेऽन्तरिक्षं च म इन्द्रश्च मे द्यौश्च म इन्द्रश्च मे समाश्च म इन्द्रश्च मे नक्षत्राणि चम् इन्द्रश्च मे दिशश्च इन्द्रश्च मे यज्ञेन कल्पन्तम्॥
(शुक्ल यजुर्वेद 18.16-18)

‘अग्नि भी इन्द्र है, सोम भी इन्द्र है, विद्या भी इन्द्र है, सरस्वती भी इन्द्र है, पूषा भी इन्द्र है, बृहस्पति भी भक्ति के साथ हम उच्चारण करते हैं।’ इंद्र हैं वे सब इंद्र परमात्मास्वरूप अग्नि आदि देव जपादि विविध यज्ञों के मेरे सहायक- सहायक हैं। ;वे सब इन्द्रस्वरूप देव यज्ञ के द्वारा हम पर मोहित हैं। पृथ्वी भी इन्द्र है, आकाश भी इन्द्र है, सम-संवत्सर के अधिष्ठाता देवता भी हैं, नक्षत्र भी इन्द्र हैं; वे सब इंद्रा भिन्न देव यज्ञ के द्वारा मेरे रक्षक हैं।”

सम्पूर्ण देवता एक इन्द्र-परमात्मा की ही शक्ति एवं विभूति विशेष रूप में हैं। मूलतः वे अन्यत्र पृथक्करण नहीं हो सकते। इसलिए इस देव समुदाय में सर्वात्म-ब्रह्मस्वरूप लक्षण वाले इन्द्रत्व का प्रतिपादन करने के लिए अग्नि आदि के लिए प्रत्येक पाद के साथ इन्द्रपद का प्रयोग किया जाता है। “तदभिन्नभिन्नस्य तदभिन्नत्वम्” इस न्याय से मतलब है जैसे कि अग्नि से भी समानता है- इस न्याय से अग्नि, सोम आदि देवों में भी समानता है जिप का अभाव होता है और इन्द्र-परमात्मा का अनन्यत्व सिद्ध हो जाता है, जो भक्ति का विशेष रूप है।

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