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राम के जन्म पर बने थे अदभुत योग, कुंडली में 5 ग्रह उच्च के तो चंद्रमा में बना था गजकेसरी योग

राम के जन्म पर बने थे अदभुत योग, कुंडली में 5 ग्रह उच्च के तो चंद्रमा में बना था गजकेसरी योग


राम का गुणगान करिये, राम का गुणगान करिये।
राम प्रभु की भद्रता का, सभ्यता का ध्यान धरिये॥

ऐसे ही 22 जनवरी 2024 की तारीख आ रही है, देश का माहौल भी राममय हो रहा है। हर जगह पर श्री राम मंदिर निर्माण एवं प्रतिष्ठा कार्यक्रम को लेकर चर्चा हो रही है। मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर भी राममय माहौल बना हुआ है। जैसे आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श पति, आदर्श शिष्य, आदर्श राजा, आदर्श मुखिया यानि कि आदर्श श्रीराम के जन्म की कथा का भी विशेष महत्व है।

एक प्रतिष्ठित प्रकाशन में श्रीमद् वाल्मिकी रामायण महात्म्य के प्रथम अध्याय में रामायण पाठ और दिव्य महिमा का वर्णन दिया गया है। इसी अध्याय के श्लोक संख्या 39 में रामायण कथा की महिमा लिखी गई है जिसके अनुसार ‘रामायण कथा तब प्राप्त होती है जब करोड़ों जन्मों के पुण्यों का उदय होता है।’. इसी अध्याय में रामायण कथा के कार्तिक, माघ और चैत्र के नौ दिनों के श्रवण का महत्व भी बताया गया है।

पंचांग के अनुसार अभी पौष मास चल रहा है और पौष मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि यानि 22 जनवरी 2024 को अयोध्या में श्रीराम लला के बाल विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है। यही कारण है कि इस बार पौष मास में भी राम कथा का विशेष महत्व हो गया है। आइए जानते हैं वाल्मिकी रामायण के अनुसार श्रीराम के जन्म की कथा के बारे में-

श्रीराम जन्म कथा (श्रीराम जन्म कथा)

वाल्मिकी के ‘बालकाण्ड’ में सर्ग 8 से सर्ग 18 तक श्रीराम के जन्म की कथा का पूर्वपक्ष और विस्तृत विवरण है। इसके अनुसार आर्यावर्त में सरयू नदी के किनारे बसा एक बहुत बड़ा प्रदेश है, जिसका नाम ‘कोशल’ है। यह समृद्ध है. धन-धान्य से समृद्ध सुखी और समृद्ध मुख है।

कोसलो नाम मुदितः सफितो प्रदेशो महान्।
निविष्टः सरयूतीरे प्रबुद्धधान्यवान् ॥5॥
(वा. रा. बालकांड, सर्ग 5 श्लोक 5)

कोशल प्रदेश की राजधानी अयोध्या नाम की नगरी है जो सभी लोकों में व्याप्त है, जिसे स्वयं मनु महाराज ने स्थापित और बसाया था।

अयोध्या नाम नगरी तत्रासीलोकविश्रुता।
मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् ॥6॥
(वा. रा. बालकांड, सर्ग 5 श्लोक 6)

ऐसी पवित्र नगरी अयोध्या में सभी धर्मों के पवित्र और शक्तिशाली राजा अभिषेक का राज्य है। पुत्र न होने से राजा जोशीला आकर्षण वाले थे क्योंकि उनके वंश को उनके बाद में स्थापित करने वाला कोई नहीं था। चिंताग्रस्त राजा दशरथ के मन में एक दिन पुत्रप्राप्ति के लिए अश्वमेध यज्ञ करने का विचार आया। इसके बाद राजा दशरथ ने अपने मंत्री सुमंत्र को सभी गुरुजनों और पुरोहितों को मछली के लिए बुलाया।

राजा चतुर्थी के निकट आने के बाद गुरुजनों और पुरोहितों ने अपने मन की बात प्रकट की, जिसमें सभी गुरुजनों और पुरोहितों ने सहर्ष प्रतिज्ञा और यज्ञ करने की तैयारी करने को कहा। जब सभी गुरुजन और पुरोहित वापस लौट आये तो उनके बाद राजा दशरथ महल में गये और अपनी रानियों से बोले “देवियों! ग्रहण ग्रहण करो. मैं पुत्र के लिए यज्ञ करूँगा” (वा. रा, सर्ग 8, श्लोक 23)।

सर्ग 9 में राजा दशहरा के मंत्री सुंत्र उन्हें यज्ञ के सफलता के लिए ऋष्यश्रृंग मुनि और उनके भार्या शांता के विषय में उपदेशक हैं। सर्ग 10 और 11 में सर्ग 10 और 11 में अंगराज के पास जाते हैं देवता ऋष्यश्रृंग मुनि और शांता को अयोध्या आते हैं लोग करते हैं.

अंगराज अभिषेक महाराज अभिषेक का निवेदन स्वीकार करते हैं और दोनों (ऋष्यश्रृंग मुनि और शांता) अयोध्या आ जाते हैं। सर्ग 12 में महाराज दशरथ ऋषियों के समग्र यज्ञ प्रस्ताव रखे गए हैं और ऋषियों ने उनका विवरण दिया है। इसके बाद राजा अभिषेक अपने विवाह समारोह को यज्ञ की तैयारी करने का आदेश देते हैं। इसी सर्ग के श्लोक 13 में ऋष्यश्रृंग मुनि राजा जन्मोत्सव से कहते हैं:-

सर्वथा प्राप्स्यसे पुत्रान्श्चतुरोऽमितविक्रमन्।
यस्य ते धार्मिक बुद्धिर्यं पुत्रार्थमगता ॥13॥

तुम्हारा यज्ञ सर्वथा चार अमित संभावित पुत्र प्राप्त करोगे; पुत्रके लाइफ मन में ऐसे धार्मिक विचार का उदय हुआ है।

सारग 13 में राजा दशमांश मुनि से यज्ञ की तैयारी का प्रस्ताव रखा जाता है, जिसे मुनि स्वीकार करते हैं और इस यज्ञ कर्म में होने वाले विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए सेवकों के आदेश देते हैं और साथ ही स्वामी को आदेश देते हैं:

निमन्त्रयस्व नृपतिं पृथिव्यां ये च धर्माः।
ब्राह्मणान् क्षत्रियान् वैश्यान् शूद्रान्श्चैव सहस्रशः ॥20॥

इस पृथ्वीपर जो-जो धार्मिक राजा, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और सहस्रौद्र हैं, उन भक्तों के लिए इस यज्ञ में निमंत्रित करो॥ 20॥

इस श्लोक से एक बात ध्यान देने योग्य है कि उस समय चारों वर्णों का महत्व वैसा ही था जैसा कि उस यज्ञ में चारों वर्णों के लोगों को आमंत्रित किया गया था। महाराज दशरथ का अश्वमेध यज्ञ और पुत्र कामेष्टि यज्ञ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रथमा से प्रारम्भ हुआ था। (वा. रा. बाल काण्ड सर्ग 13, श्लोक 1)

जब यज्ञ की पूरी तैयारी हो गई और यज्ञ यज्ञ का आयोजन किया गया तब आदि मुनियों ने ऋष्यश्रृंग को आगे बढ़ाकर शास्त्रोक्त विधि से यज्ञकर्म का आरंभ किया और फिर अवध नरेश राजा दशरथ ने अपनी परंपरा सहित यज्ञ की दीक्षा ली। सर्ग 14 में अवध नरेश दशरथ द्वारा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया जाता है। इस यज्ञ की विधि सर्ग 14 के श्लोक 10 में इस प्रकार बताया गया है:-

न चतुर्मभूत तत्र स्खलितं वा न रसोई।
दृश्यते ब्रह्मवत् सर्वं क्षेमयुक्तं हि चक्रिरे ॥10॥

उस यज्ञ में कोई अंतिम या विपरीत आहुति नहीं डाली गयी। कहीं कोई भूल नहीं हुई अन्य में भी कोई कर्म छूट नहीं मिली; क्योंकि वहां सारा कर्म मंत्रोच्चारण-अंगूठे की राय सामने आती है। महर्षियों ने सब कर्म क्षेमयुक्त निर्विघ्न मूल्यवान बनाए।

यज्ञ समाप्त होने पर राजा दशरथ ने ऋत्विजों को सारी पृथ्वी दान कर दी। लेकिन ऋत्विजों ने पृथ्वी की रक्षा करने में असमर्थता प्रकट की और उन्होंने भूमि के बदले मूल्य की बात कही। महाराज चन्द्रशेखर की मूर्ति ही बनाई गई। राजा दशरथ के ऐसा करने से ऋत्विज बेहद मनमोहक और यादगार बने। यज्ञ समापन पर ऋष्यश्रृंग मुनि द्वारा राजा दिसंबरश को चार पुत्र होने की बात कही गयी। सरग

15 में ऋष्यश्रृंग मुनि राजा के जन्मोत्सव के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ प्रारंभ करते हैं और शास्त्रोक्त विधि के अनुसार अग्नि में आहुति डालते हैं। इसके बाद देवता, सिद्ध विधि, गंधर्व और महर्षि गणेश के अनुसार अपना-अपना भाग ग्रहण करने के लिए वह यज्ञ एक साथ हो गया। उस यज्ञ में देवता देवताओं ने ब्रह्माजी से रावण राक्षस के वध का उपाय करने का आग्रह किया।

इसी सर्ग के श्लोक 14 में ब्रह्माजी रावण का वध मनुष्य के हाथों होने की बात बताई गई है। उसी समय वहां भगवान विष्णु प्रकट होते हैं और सभी देवता अपने चार स्वरूप में रावण का वध करने के लिए मानव रूप में दशहरा में राजा की तीन मूर्तियों के गर्भ से चार पुत्रों के रूप में अवतार लेने के लिए विनती करते हैं। देवताओं के आग्रह को स्वीकार करते हुए भगवान विष्णु रावण सहित सभी बंधू-बंधवों का विनाश करते हैं और पृथ्वी पर दस हजार वर्ष तक निवास करने की प्रेरणा देते हैं।

इसके बाद भगवान विष्णु ने अपने चार स्वरूपों को प्रकट करते हुए राजा के जन्मोत्सव को अपने पिता के रूप में स्थापित किया। दशरथ को ही पिता ने बनाने की इच्छा प्रकट की।

इसके बाद भगवान विष्णु वहां से अंतर्धान हो गये। फिर उस यज्ञ कुंड से भव्य दिव्यपुरुष हाथ में चाँदी के तारा के साथ जम्बूनाद सुवर्ण का पात्र लेकर प्रकट हुए। उस पात्र में देवताओं द्वारा निर्मित दिव्य खेड था। राजा दशरथ ने दिव्य पुरुष का स्वागत किया उसके बाद दिव्य पुरुष ने राजा दिसंबर से कहा, “इस देवता ने खेड बनाया है जो संत जन्म लेने वाला है।” इसे सुनो करो”… ”यह तुम्हें अपने दो दोस्तों के साथ मिला है, ऐसा करने से तुम्हें उनके गर्भ से कई पुत्रों की प्राप्ति होगी, जिसके लिए तुम यह यज्ञ कर रहे हो।” (वा. रा. बाल काण्ड सर्ग 16, श्लोक 19-20)

दिव्य प्राप्त खेड कर मंत्रमुग्ध राजा दशरथ ने दिव्य पुरुष के आदेश का पालन किया और राणियों के बीच खेड बाँट दी। उन्होंने का खेड आबटन (बंटवारा) कुछ इस तरह किया- खेड का फिर आधा भाग महारानी कौशल्या को दिया, बचे हुए दूसरे भाग का आधा भाग रानी सुमित्रा को दिया। उसकी बाद में बिकवाली हुई खेड का आधा भाग कैकेयी को दिया और जो शेष खेड बच गया उसे पुनः सुमित्रा को दे दिया। (वा. रा. बाल काण्ड सर्ग 16, श्लोक 27-29)

दिव्य खेड को प्राप्त करके हर्षित राजा दशश की राणियों ने पृथक्करण धारण किया। वे गर्भ अग्नि और सूर्य के समान थे। यह देखने के लिए राजा उत्सव के बहुत से उत्सव थे। सर्ग 17 के अनुसार उसी समय ब्रह्माजी ने सभी देवताओं को मनुष्य रूप में अवतार लेने वाले भगवान विष्णु के सहायकों के रूप में बलवान, इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ, माया को नष्ट करने वाले, वायु के समान वेगशाली, नीतिज्ञ, बुद्धि, रूपी, किसी से प्राप्त किया। भी पराजय न होने वाले, तरह-तरह के स्मारकों के दर्शन, दिव्य शरीरधारी और देवताओं के समान सभी प्रकार की अस्त्रविद्या के शिष्य पुत्र उत्पन्न करने का आदेश दिया।

ब्रह्माजी के आदेश का पालन करते हुए देवताओं ने यथावत और कई वानर युवाओं की सृष्टि की। बाली, सुग्रीव, तार, गंधमादन, नल, नील और हनुमान जैसे महाबली वानरों का जन्म हुआ। ऋषिराज जाम्बवान की सृष्टि ब्रह्माजी ने ही की थी। इस प्रकार के राक्षस और शक्तिशाली रीछ, वानर और लंगूर आदि वानरयुपति मानव अवतारी भगवान विष्णु की सहायता के लिए प्रकट हुए और उन वीरों से पूरी पृथ्वी भर गई थी।

इसके बाद राजा अभिषेक का यज्ञ समाप्त होने के बाद सभी आंगतुक (देवता, ऋषि, राजा आदि) अपने-अपने स्थान पर वापस लौट आये। अब राजा अभिषेक अपने पुत्रों के जन्म की प्रतीक्षा करने लगें। (वा. रा. बाल काण्ड सर्ग 18, श्लोक 8-10)

ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतुनां षट् समत्य्युः।
ततश्च द्वादशे मासे चैत्रे नाविमे तिथौ ॥8॥

नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु।
ग्रहेषु कर्कते लंचे स्वप्नविन्दुना सह ॥9॥

प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनामस्कृतम्।
कौशल्याजनयद् रामं दिव्यलक्षणसंयुतम् ॥10॥

यज्ञ-समाप्ति की नींव जब छः ऋतुएं बीतीं, तब बारहवें मास में चैत्र के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क राशि में कौशल्या देवी ने दिव्य दिव्य लीलाओं से युक्त, सर्वलोकवंदित जगदीश्वर श्रीराम को जन्म दिया। उस समय (सूर्य, मंगल, शनि, गुरु और शुक्र) ये पांच ग्रह अपने-अपने उच्च स्थान में विराजमान थे और चंद्रमा के साथ बृहस्पति ग्रह थे। ज्योतिष में इस योग को गजकेसरी योग कहा जाता है, जिसके अनुसार वे विष्णु स्वरूप हविष्य या भाग्य के भाग से प्रकट होते थे। कौशल्या के महाराज पुत्र श्रीराम इक्ष्वाकु कुल का आनंद बढ़ाने वाले थे। उनके उत्सवों में कुछ-कुछ लालिमा थी। उनके ओठ लाल, भुजाएं बड़ी-बड़ी और स्वर दुंदुभी के शब्दों के समान थे।

उसके बाद रानी कैकेयी से पुष्य नक्षत्र और मीन राशि में भरत का जन्म हुआ। इसके बाद रानी सुमित्रा ने आश्लेषा नक्षत्र और कर्क राशि में लक्ष्मण और शत्रुघ्न को जन्म दिया। उस समय सूर्य अपने उच्च स्थान में स्थित थे। अंतिम दिन प्रारंभ होने पर बालकों का नामकरण संस्कार हुआ।

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[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]



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